Wednesday, August 31, 2011

मेरी पहली फि‍ल्‍म समीक्षा... गाइड


षोडशी कन्‍याओं की तरह हमेशा (46 साल के बाद भी) जवां रहने वाली, हि‍न्‍दी सि‍नेमा की एक यादगार फि‍ल्‍म........ मेरी ओर से गाइड के लि‍ए।
एक मि‍त्र संग, फि‍ल्‍मों पर बात हो रही थी, कि‍ असल में फि‍ल्‍में सिर्फ मनोरंजन नहीं करतीं, भावनाओं को भी तृप्‍त करती हैं। जैसे; उदास होने पर सैड मूवी देखना और खुद को पात्रों से जोड़ना, मस्‍ती का मूड हो तो कॉमेडी, कि‍सी नए थॉट की तलाश हो तो कोई आर्ट मूवी और कुंठा से भरे हों तो ब्‍लू फि‍ल्‍म। हर भाव के लि‍ए फि‍ल्‍मों की एक कैटेगरी है।
दोनों ही इस बात से सहमत थे, सो बात जल्‍दी ही खत्‍म हो गई। मि‍त्र महोदय, हालि‍या रीलि‍ज एक फि‍ल्‍म देखकर आए थे, बड़े ही अनोखे ढंग से कहानी सुनाई ताकि‍ मैं भी जाकर देखूं। फि‍ल्‍म तो नहीं देखी लेकि‍न उनकी समीक्षा वाकई दि‍ल को छू गई, कॉम्‍प्‍लीमेंट भी दे दि‍या कि‍ एक अच्‍छे फि‍ल्‍म समीक्षक बन सकते हो।
इतनी फि‍ल्‍मी होकर घर पहुंची थी कि‍ मेरा भी समीक्षा करने का दि‍ल करने लगा। ये कहीं ना कहीं उन महोदय की समीक्षा से प्रभावि‍त होकर ही था। नई फि‍ल्‍में कम पसंद हैं पर पुरानी, बड़े शौक से। लेकि‍न पुरानी फि‍ल्‍म की समीक्षा... कैसे...? सुनेगा कौन....? होती भी है या नहीं... ? इन तमाम नकरात्‍मक बातों के इतर केवल एक बात पक्ष में थी। समीक्षा का उद्देश्‍य, कि‍ कोई भी नई फि‍ल्‍म आप क्‍यों देखें और क्‍यों नहीं देखें। पुरानी फि‍ल्‍में, भी कुछ ऐसी ही हैं, खासतौर पर युवा वर्ग के लि‍ए। जो कुछएक पुरानी फि‍ल्‍मों के नाम तक ही सीमि‍त है, बाकी उसके लि‍ए अनरीलि‍ज्‍़ड सी ही हैं। अगर नई फि‍ल्‍मों की समीक्षा हो सकती है तो पुरानी फि‍ल्‍मों की क्‍यों नहीं और यही सोचकर आज गाइड देखी।
समीक्षा एक कला है और कला, अभ्‍यास से नि‍खरती है। इस कला को खुद के अन्‍दर पैदा करने का पहला प्रयास है; समीक्षा की खामि‍यों के इन्‍तजार में....।
षोडशी कन्‍याओं की तरह हमेशा (46 साल के बाद तक) अपने जवां होने का एहसास कराने वाली, हि‍न्‍दी सि‍नेमा की एक यादगार फि‍ल्‍म........ मेरी ओर से गाइड के लि‍ए।
देवानंद की इमेज उस दौर में कुछ वैसी ही थी जैसी आज रि‍ति‍क और शाहरूख की। सुना तो ये भी है कि‍ जब वो काले कपड़ो में नि‍कलते तो लड़कि‍यां बेहोश हो जातीं। इसमें कि‍तनी सच्‍चाई है ये तो नहीं पता लेकि‍न फि‍ल्‍म के राजू गाइड से आप प्‍यार कि‍ये बि‍ना नहीं रह सकते। बहुत सी लव स्‍टोरीज़ देखी हैं लेकि‍न गाइड उन सबसे परे है। कृष्‍ण के सन्‍दर्भ में जि‍स अलौकि‍क प्‍यार की व्‍याख्‍या की जाती है, कुछ-कुछ वैसी ही।
राजू (देवानंद) जेल से बाहर नि‍कलता है और अतीत के साये उसे घेर लेते हैं। जहां एक प्रौढ़ पति‍, जि‍सकी पत्‍नी उसके लि‍ए सजावटी समान से ज्‍यादा नहीं। एक पत्‍नी(वहीदा रहमान) जो आजाद होने के लि‍ए छटपटाती रहती है, लेकि‍न जब वही पत्‍नी, प्रेमि‍का बनती है तो खुद को पूर्ण मानने लगती है। प्रेमी का साथ, जि‍सकी कामयाबी का रास्‍ता बन जाता है। एक प्रेमी, जि‍सके लि‍ए प्‍यार ही सबकुछ है। प्‍यार के लि‍ए उसका संघर्ष, उसकी तड़प, उसकी मजबूरी दि‍ल को कचोटती हैं। मन करता है कि‍ कब राजू के पास पहुंच जाएं और सबकुछ ठीक कर दें। अन्‍त में ना तो उसके पास प्‍यार बचता है और ना ही कुछ और......। गाइड एक ऐसी ही फिल्म है जिसमें प्रेमरोमांसधोखा और त्याग- सभी कुछ है। 
पहली बार कोई समीक्षा कर रही हूं... अपने स्‍तर पर सोचती हूं कि‍ समीक्षा का आधार कहानी बताना नहीं होना चाहि‍ए, क्‍योंकि कहानी को कि‍स रूप में लेना है ये दर्शक पर निर्भर करता है। समीक्षा, चाक पर बन रहे बर्तन सी होनी चाहि‍ए। जि‍सका अंति‍म आकार कुम्‍हार (दर्शक) तय करे। समीक्षा को, मॉडल जैसा होना चाहि‍ए, जि‍से पढ़कर आप आसानी से थ्‍योरी गढ़ सकें।
यादगार लम्‍हे: फि‍ल्‍म देखने के कई घण्‍टों तक राजू की याद सताती रही, रोजी की वजह से ताने सुनता राजू, मामा से उसका संघर्ष, मां को मनाना, उसकी हताशा और सबकुछ खो देने के बाद उसका खुद को भी खो देना। सबकुछ आंखों के आगे घूमता रहा और अंत उससे भी दुखद। अंत में, राजू के पास सबकुछ आता है जि‍सकी कभी उसने ख्‍वाहि‍श की थी, मां, प्रेयसी, यश, धन, सबकुछ। लेकि‍न अब जबकि‍ उसकी सारी इच्‍छाएं पूरी हो सकती थीं तो मन में कोई इच्‍छा ही शेष नहीं रह जातीगाइड का र्नि‍वाण होता है। कुछ सीन अपने आप में बेमि‍साल हैं....
रेलवे कैंटीन पर अपनी मि‍ल्‍कि‍यत को लेकर राजू का संघर्ष, रोजी को नृत्‍य के लि‍ए प्रेरि‍त करने वाले दृश्‍य, रोजी के हक के लि‍ए लड़ता राजू, प्‍यार के लि‍ए हर तरह की कुर्बानी के लि‍ए तैयार राजू, प्रेमी-प्रेमि‍का के बीच उपजा दर्द; राजू कहता है.. जि‍न्‍दगी भी एक नशा है दोस्‍त, जब चढ़ता है तो पूछो मत क्‍या आलम रहता है और जब उतरता है.... और उसके बाद ये गाना- दि‍न ढ़ल जाए, रात न जाए...... और अंत में राजू का आत्‍म-साक्षात्‍कार। फि‍ल्‍म के गाने, कहानी के साथ-साथ चलते हैं, हर गीत एक फेज़ के साथ सामने आता है और अपनी धाक जमाता है।
प्रेम के अथाह सागर में डूबती, उतराती फि‍ल्‍म में एक मोड़ ऐसा आता है जब प्रेम खो जाता है, बचता है तो केवल दर्शन... कि‍ क्‍या पाना था और हम कि‍सके लि‍ए भागते जा रहे थे और इसका एहसास तब होता है जब हम उस तथाकथि‍त मंजि‍ल पर कदम रखते हैं जहां अपनी मर्जी ही बेइमानी लगने लगती है। अन्‍त में राजू भी कुछ ऐसा ही महसूस करता है... जि‍से दि‍ल की रानी बनाना था उसे दुनि‍या की रानी बनाने नि‍कल पड़े, जो पाना था उसे ही खो दि‍या, जि‍से पाकर इतरा रहे थे, असल में वही तो गंवा दि‍या है...’’
फि‍ल्‍म में अगर प्रेम है, दीवानापन है तो परंपराओं की कठोरता भी है। फि‍ल्‍म हर क्षेत्र में सर्वश्रेष्‍ठ है।
....तो ये थी मेरी समीक्षा, फि‍ल्‍म गाइड के लि‍ए। वर्तमान में अधि‍कतर समीक्षकों को पैसा खि‍लाकर फि‍ल्‍म के लि‍ए अच्‍छे-अच्‍छे कमेंट्स की बुकिंग की जाती है ताकि‍ मुनाफा बढ़े लेकि‍न ये समीक्षा बस इसलि‍ए कि‍ अगर आपने अब तक इस मास्‍टरपीस को नहीं देखा है तो जरूर देखि‍ए। भावनाओं की असीमि‍तता का नाम है गाइड।

                                                                                                       

9 comments:

basant singhal said...

AccCHa lIkHa hAi.......bT KoUn SaMaJhtA HaI aAj uN fIlMo Ko JiNMe KuCh GaHRaI Hoti HAi....EmOtIoN HoTe HaI....JEevAn Ki SaccchaI HOti hAI....

चंदन कुमार मिश्र said...

गाइड देखी थी कुछ महीने पहले। कहानी और गीत बेहद अच्छे हैं लेकिन अन्त में फिल्म बस आध्यात्मिक बन जाती है, यह अधिक पसन्द नहीं। लेकिन फिर भी जरूर देखने लायक है। पुरानी फिल्में निश्चय ही बेहतर हैं, संगीत से लेकर सब कुछ के लिहाज से।

RAJINDER SINGH said...

superb bhut accha likti hai aap

RAJINDER SINGH said...

superb kafi accha likne lagi ho samiksha ke liye aapne acchi film ko chuna a hai
meri bdhai savikar karo

mohit sharma said...

accha likha hai but yha ek do scene ka aur bhi zikra hona chahiye tha jisme raju ki baaton ka aur pta chalta..
waise bhi yha kuch aur bhi zikra hona tha jisse movie ka naam GUIDE kyu pda.?
ye line to such me acchi hai- zindagi to ek nasha hai but kaise hai.?
over accha lga lekin samjksha krte hue hum film ki sabhi pehluon ko dhyan me rakhte hain...

Devashish said...

samiksha ko achhe se paribhasit kiya hai aapne. aur sameeksha likhne ki jo prerna hai aur woh wakai lajawab hai
shabdon ko achhe se piroya hai... aur film ke jin dailoges ko aapne quote kiya hai... film k vishay vastu ki gehrai usse mapi ja sakti hai....

agar is samiksha mein film ki aalochna(negativity) ke 2-4 put hote ki toh ye aur nikhar sakti hai.

kul milakar achcha prayas hai...

Rahul Singh said...

फिल्‍म, फिल्‍म की समीक्षा और उसके अनुशासन-शास्‍त्र को साथ ले कर चली रोचक पोस्‍ट.
इस फिल्‍म की दो बातें जो तुरंत ध्‍यान आती हैं- पहली शुरुआत का दृश्‍य, जिसमें राजू पान वाले को कहता है, पान न हुआ राष्‍ट्रीय एकता हो गई.
दूसरा, गीत के ठीक पहले रोजी, राजू से पूछती है, जानते हो क्‍यों, राजू कहता है क्‍यों और गीत शुरू होता है- कांटों से खींच के ये आंचल. इसमें मजेदार और ध्‍यान देने वाली बात यह है कि जवाब होना था, गीत शुरू होना था, 'आज फिर जीने की तमन्‍ना है' से. वैसे भी यह गीत का मुखड़ा है, यानि यह एक ऐसा गीत है जो मुखड़े से नहीं अंतरे से शुरू होता है.
मेरी इस पसंदीदा फिल्‍म के साथ आरके नारायण की पुस्‍तक भी उतनी ही या शायद इससे अधिक पसंद है. बहुत से कारणों से. कोई एक कहना हो तो, जिस तरह राजू का बचपन और एक खास व्‍यक्तित्‍व को विकसित होते पुस्‍तक में है, लाजवाब है, विशेषकर स्‍कूल न जाने और मीठी गोली का निपटान, उसकी य‍ह जिज्ञासा भी कि पिता की दुकान से सबको जरूरत की चीजें मिलती हैं, तो फिर पिता क्‍यों और क्‍या सामान लाने शहर जाते हैं.
बहरहाल समीक्षा वाली इस पोस्‍ट के लिए एक शब्‍द में कहना हो तो- शाबास.

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