Thursday, July 17, 2014

आंखें देखेगीं, दिमाग जानता है...बलात्कार ऐसे ही हुआ होगा

आज फिर मेरी आंखें बलात्कार होते देखेंगी

दिल तरह-तरह से छटपटाएगा 

पर दिमाग़ जानता है बलात्कार ऐसे ही हुआ होगा

इंसान हूं, इसलिए कल्पनाशील भी...

पर मेरी ये ताक़त, मुझे हर रोज़ वो दिखाती है 

जिसे मैं महसूस भी नहीं करना चाहती...

आज फिर दो बलात्कार हुए...हो रहे हैं मेरी आंखों के सामने

मेरे दिमाग़ में...

एक वो जिसमें शरीर के अंगों को चाकू से गोदकर हवस पूरी की गई है 

और दूसरी वो, जिसमें टाॅफी का लालच देकर बचपन रौंदा गया है

हर लाइन के साथ जब आगे बढ़ती हूं...ख़ुद को सहला लेती हूं

खुद को ढांढस देती हूं...कि मैं अभी, इस पल तक सुरक्षित हूं...

आॅफिस से छूटते ही घर में दुबक जाउंगी...शायद सुरक्षित हो जाउंगी

पर बिस्तर पर लेटते ही सब जि़न्दा हो उठता है...

उस औरत की छटपटाहट को महसूस करती हूं,...

उसके दर्द को अपने पर रिसता हुआ पाती हूं...

क्या ये सिर्फ उन दोनों का बलात्कार है...

या फिर उन सबका, जो महसूस कर पाते हैं...

जो ये समझ पाते हैं कि औरत सिर्फ कुछ अंग विशेष वाली देह नहीं

उसमें एक जान भी है...

वही जान, जो उनकी मां में है, बहन में है और बीवी में है....

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